प्रवासी भाइयो के लिए जरूरी जानकारी जरूर पढ़ें समय निकाल के
*हमारा आपदधर्म...*
हम तो घर नही जा रहे,आपका क्या ख्याल है....
मारवाड़ समेत राजस्थान के अनेक जिलों में प्रवासी देश के विभिन्न राज्यों से अपनी मातृभूमि की ओर लौट रहे हैं। घर से गए हुए व्यक्ति का घर लौटना एक सहज और स्वाभाविक बात है,उन्हें लौटने का पूरा अधिकार है। जो लोग वहां राजस्थान में है, उनका कर्तव्य भी बनता है कि वह अपने बंधु बांधवो का घर लौटने पर विरोध नहीं करें, स्वागत करें । राजस्थान की जनता यह काम अपना कर्तव्य मानकर भी रही है । स्थापित राजनेताओं, उभरते हुए राजनेताओं एवं छद्म राजनेताओं सभी ने इसके लिए प्रयत्न किए हैं। सामाजिक संगठनों ने भी, सामाजिक कार्यकर्ताओं ने भी यथासंभव यथाशक्ति इसके लिए प्रयास किए हैं कि प्रवासी सुरक्षित अपने घर लौट आए। इस प्रकार कुल मिलाकर वहां रह रहे लोगों ने पूरी सक्रियता के साथ हम प्रवासी बंधुओं के प्रति अपने कर्तव्य का निर्वहन किया है ,इसमें कोई दो राय नहीं, उन्हें करना भी चाहिए था।
अब इसका एक और पहलू भी है एक और पक्ष है । वह है कि इस संकटकाल में हम प्रवासियों की जिम्मेदारी। हमारा कर्तव्य क्या है?
पहली बात तो यह है कि जो लोग गांव चले गए हैं उन्हें वहां जाकर वहां नियम कायदों का कठोरता के साथ पालन करना ही चाहिए ।उनका आत्मानुशासन ही उनको और उनके परिवार को, गांव को सुरक्षित रखेगा
दूसरी बात
जो लोग अभी तक अपने कर्म क्षेत्र से नहीं निकले है या नही निकल पाए हैं उनके लिए एक विनम्र निवेदन है कि वास्तव में कोई बड़ी मजबूरी नहीं हैं तो जो जहां है, वहीं रहे।
जो वाकई में मजदूर है ,रहने का ,खाने के कोई ठिकाना नही है, वे अवश्य जाएं , उनकी मातृभूमि में उनका सदैव स्वागत है।
किन्तु यदि यहां देसावर में रहने को खुद का या किराए का कोई छोटा सा भी घर है, सिर ढकने को जगह है। तो इस घोर विपदा वाले समय मे वही रहना चाहिए।
हे मित्रो ! हम सभी थोड़ा सा विचार करे। जो गरीब है, मजबूर है, फुटपाथ पर रहने वाले है वे जाए तो समझ आता है पर जिनको अपना गावँ छोड़कर आये हुए 15 -20- 25 -30 साल हो गए है ,यहां अच्छे से सेटल है , वे अभी भी प्रवासी ही रहेंगे क्या? हम अपने ही देश में अपने को कब तक प्रवासी मानते रहेंगे ।
गांव के हमारे घर, बंगले, फार्म हाउस, गाड़ियां, सारा वैभव, प्रतिष्ठा में बोली जाने वाली बोलियां ,मान सम्मान, इन सब का आधार है हमारी यह कर्मभूमि।
कर्मभूमि जहां पर हमने अपने परिश्रम के सहारे एक अच्छा जीवन निर्माण किया है । केवल हमारा ही हुनर होता तो हम वहां गांव में रहकर भी कुछ कमा सकते थे । कुछ तो उपकार इस मिट्टी का भी मानना ही चाहिए जिसने हमें आश्रय दिया, जहां रहकर हमने जीवन निर्वाह के लिए पैसा कमाया।
*हमारी जन्मभूमि देवकी माता है तो हमारी कर्मभूमि यशोदा माता जिसने हमे पाला पोसा है।* अनेक परिवारों को तो यहां देसावर में आए हुए 40 से 50 साल हो गए हैं, अब हम यहां परदेशी नही है, सकल भूमि गोपाल की ,भारत माता की।
कोरोना की महामारी दुनिया भर में फैली हुई है, अपने देश का भी कोई भी भाग इससे बचा हुआ नहीं । जालोर पाली सिरोही तक भी यह बीमारी फैली हुई है।
आज हमारी कर्मभूमि जहां हमारा व्यापार हैं, जहां से हमने पैसा कमाया है, जहां हमारे व्यापारिक मित्र हैं, वह भूमि संकट में है ,वहां जीवन मरण का संघर्ष चल रहा है। ऐसे में अपने व्यापारिक सहयोगीयों को छोड़कर, स्थायी ग्राहकों को छोड़कर , यहां के पड़ौसियों को संकट में छोड़कर अपने घर लौट जाना..... क्या यही हमारा जीवन है ।
हम इतने स्वार्थी हो जाएं क्या....
और इससे जीवन बचने की गारंटी है क्या......? हमारा इस धरती के प्रति कोई कर्तव्य नहीं है ?
यह कोई ज्ञान या प्रवचन नही है। यही बात हमारे शास्त्रों ने, हमारे पूर्वजों ने आदिकाल से कहि है - धीरज धर्म मित्र अरु नारी आपद काल परखिए चारी ..... हमारे यहां के मित्र भी तो हमारी परीक्षा कर रहे होंगे कि हम लोग कितना स्वार्थी हैं या सच्चे मित्र हैं
और भी अनेक लोगों ने कहा है पलायन पराक्रम नहीं .......
लाभ हानि जीवन मरण
यश अपयश विधि हाथ। जब जन्म मरण विधि हाथ है तो हम अपने सिर पर यह कलंक क्यों लेकर जाए .. वो एक गीत भी है न देखो वीर जवानों अपने खून पर ये इल्जाम ना आएं, मां न कहे कि मेरे बेटे वक्त पड़ा तो काम न आएं।
जो थोड़ा बहुत भी सक्षम है, रहने के लिए, सिर ढकने के लिए मकान है चाहे किराए का हो या स्वंम का। जिन जिन प्रवासियों के घर पर दाल रोटी खाने का जुगाड़ है उन सभी से निवेदन है कृपया यहीं रहिए ।
आने वाला समय इस बात के लिए हमारी मिसाल देगा की इस घोर संकट के समय में हमने अपने कर्तव्यों और जिम्मेदारियों से मुंह नहीं मोड़ा हम जान बचाकर भागे नहीं।
हम यहां रहकर भी सुरक्षित रह सकते हैं और वहां जाकर भी लापरवाही करेंगे तो कोरोना हो सकता है।
हमे यहां परदेश में क्यो रहना चाहिए, इसका जवाब हमारे वडेरे /पूर्वज देकर गए हैं।
देशभर में प्राचीन काल से ही जागरण के माध्यम से भजनों के माध्यम से , रातीजगा के माध्यम से समाज को शिक्षित करने एवं दिशा देने के प्रति ना चलते रहे हैं। इसी कड़ी में पश्चिमी राजस्थान में भजनों की विशाल श्रंखला हेली नाम से विख्यात है। बचपन से ही हेली पर आधारित बहुत सारे भजन सुनने का अवसर मिला है उन्हीं में से एक भजन है जिसमें चंदन के पेड़ और हंस की कहानी का उल्लेख है। एक बार जंगल में भयंकर आग लग जाती है। सारे जानवर जान बचाकर भागने लगते हैं। अनेक पक्षी भी उड़ गए हैं मगर चंदन के पेड़ पर एक हंस बैठा रहता है। वह वहां से उड़ता नहीं है। वहां उस चंदन के पेड़ में और हंस के मध्य में बातचीत होती है।
इस भजन के लेखक ने उस बातचीत के माध्यम से समाज को दिशा देने का बहुत अच्छा प्रयास किया है। वह चंदन का हंस से पूछता है, हे ! पक्षीराज इस भयंकर आग में भी आप यहां क्यों रुके हुए हैं। सभी पक्षी...पशु यहां से सुरक्षित स्थानों पर चले गए है। हम तो पेड़ है, हमारी जड़ें धरती में बहुत गहरी हैं ,जा नही सकते। इसलिए जल रहे है किंतु आपके रुकने का क्या कारण है? आपको अवश्य ही यहां से उड़ना चाहिए और किसी सुरक्षित जगह जाना चाहिए।
चंदन के पेड़ की बात की उत्तर में हंस कहता है- इस जंगल से हमने अपना भोजन प्राप्त किया और इसी पेड़ के पत्तों को हमने बारंबार गंदा किया है। आप हमारे आश्रयदाता पेड़ जल रहे है तो हम भी बचकर क्या करेंगे, आखिर कितने साल जीना है....ऐसे में हमारा धर्म बनता है कि हम इसी के साथ जिए और मरे।
*फल खाया ने, पान तोङीया मारी हैली, रमीया डालो डाल,*
*थे जलो ने मै क्यू, उबरा मारी हैली, जिवणो कितरा काल।*
कहते हैं कि हंस और चंदन के अद्भुत प्रेम को देखकर परमात्मा में पिघल गए और बड़े जोरदार बारिश हुई और जंगल की वह आग बुझी........... उस भजन की कुछ पंक्तियां इस प्रकार है।
दव लागो डरे, डुंगरे मारी हैली,
मिल गई झालो झाल,
ओर सब पंखैरू, उङ गया मारी हैली, हंस राज बैठा आय।।
चन्दन हंस, मुख बोलीया मारी हैली,थे क्यू जलो हंसराज,
मै तो जला पांखा, बायरा मारी हैली, जङा पियाला माय।।
फल खाया ने, पान तोङीया मारी हैली, रमीया डालो डाल,
थे जलो ने मै क्यू,
उबरा मारी हैली,
जिवणो कितरा काल।
मारवाड़ में रहने वाले हमारे परिचित, परिवार जन, सभी पार्टी के लोग सभी हमारे लिए चिंतित हैं। हमारे लिए संघर्ष कर रहे हैं।
यह उनकी महानता है,उन्हें करना ही चाहिए। उनका काम वो कर रहे है। मगर हमें क्या करना चाहिए। इस पर भी तो जरा विचार करें। इस वैश्विक संकट के दौर में अपनी कर्मभूमि के प्रति हमें भी अपने कर्तव्य का पालन करना चाहिए तभी परमात्मा भी प्रसन्न होगा, इसी से राष्ट्रीय एकता भी मजबूत होगी, यहां रह रहे मूल निवासियों चाहे वे मराठी बंधु हो, चाहे तमिल बंधू हो या फिर अन्य किसी प्रांत के , वे सब भी हमारे इस व्यवहार को नोट तो कर ही रहे होंगे कि उनके संकट के समय में हमने क्या किया। हम यहीं अपने कर्मभूमि पर रुके रहेंगे तो हमें जीवन भर उनका विश्वास और प्रेम मिलेगा।
संभव है तो हम यहां उनकी छोटी मोटी कुछ ना कुछ सहायता करें (कर भी रहे होंगे), नहीं कर सकते हो तो कोई बात नही, अपना जीवन बचा कर घर में ही रुके रहे, मगर पलायन नहीं करें।
वहां मारवाड़ में रह रहे लोग उनका कर्तव्य निभा रहे हैं हमारे लिए प्रयास कर रहे हैं, हमारी जिम्मेदारी है कि हम भी अपना कर्तव्य निभाए और इस घोर संकट के समय में अपनी इसी कर्मभूमि में बने रहें।
हम सबने बहुत प्रकार से अपनी मातृभूमि की सेवा की है आज अपनी कर्मभूमि के प्रति अपने कर्तव्य को निभाने का समय है।
विचार करें......
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