गुरु बिना जीवन अधूरा

 

गुरु की भूमिका

गुरु गीता (श्लोक 17) गुरु की सही ढंग से व्याख्या करती है। “अन्धकार हटाने वाला” (गु, “अन्धकार” तथा रु, “हटाने वाला”)। एक सच्चा, ईश्वर प्राप्त गुरु वह होता है, जिसने आत्मनियंत्रण की उपलब्धि करने में सर्वव्यापी ब्रह्म के साथ एकरूपता प्राप्त कर ली है। ऐसा व्यक्ति विशेष रूप से किसी साधक को उसकी पूर्णता की ओर आन्तरिक यात्रा में सहायता प्रदान करने में समर्थ होता है।

“एक अंधा दूसरे अंधे को रास्ता नहीं दिखा सकता” परमहंसजी ने कहा। “केवल एक गुरु (सिद्ध पुरुष), जो ईश्वर को जानता है, दूसरों को सही ढंग से ईश्वर के बारे में शिक्षा दे सकता है। व्यक्ति को अपनी दिव्यता को पुनः पाने के लिए एक ऐसा ही सद्गुरु चाहिए। जो निष्ठापूर्वक सद्गुरु का अनुसरण करता है वह उसके समान हो जाता है, क्योंकि गुरु अपने शिष्य को अपने ही स्तर तक उठने में सहायता करता है।”

गुरु शिष्य सम्बन्ध मित्रता की उच्चतम अभिव्यक्ति है-क्योंकि यह नि:शर्त दिव्य प्रेम और बुद्धिमता पर आधारित होता है। यह सभी सम्बन्धों में सबसे उन्नत एवं पवित्र होता है।

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